चैत्र शुक्ल पक्ष में ‘कामदा’ नाम की एकादशी होती है। कहा गया है कि ‘कामदा एकादशी’ | Kamada Ekadashi ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषों का नाश करनेवाली है। इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।
कामदा एकादशी पौराणिक उल्लेख | Kamada Ekadashi ka Ullekh
पुराणों में इसके विषय में एक कथा मिलती है। प्राचीनकाल में भोगीपुर नामक एक नगर था। वहाँ पर अनेक ऐश्वर्यों से युक्त पुण्डरीक नाम का एक राजा राज्य करता था। भोगीपुर नगर में अनेक अप्सरा, किन्नर तथा गन्धर्व वास करते थे। उनमें से एक जगह ललिता और ललित नाम के दो स्त्री-पुरुष अत्यंत वैभवशाली घर में निवास करते थे। उन दोनों में अत्यंत स्नेह था, यहाँ तक कि अलग-अलग हो जाने पर दोनों व्याकुल हो जाते थे। एक दिन गन्धर्व ललित दरबार में गान कर रहा था कि अचानक उसे अपनी पत्नी की याद आ गई। इससे उसका स्वर, लय एवं ताल बिगडने लगे।
इस त्रुटि को कर्कट नामक नाग ने जान लिया और यह बात राजा को बता दी। राजा को ललित पर बड़ा क्रोध आया। राजा ने ललित को राक्षस होने का श्राप दे दिया। जब उसकी प्रियतमा ललिता को यह वृत्तान्त मालूम हुआ तो उसे अत्यंत खेद हुआ। ललित वर्षों वर्षों तक राक्षस योनि में घूमता रहा। उसकी पत्नी भी उसी का अनुकरण करती रही। अपने पति को इस हालत में देखकर वह बडी दुःखी होती थी। वह श्रृंगी ऋषि के आश्रम में जाकर विनीत भाव से प्रार्थना करने लगी। उसे देखकर श्रृंगी ऋषि बोले कि हे सुभगे! तुम कौन हो और यहाँ किस लिए आई हो? ललिता बोली कि हे मुने! मेरा नाम ललिता है। मेरा पति राजा पुण्डरीक के श्राप से विशालकाय राक्षस हो गया है। इसका मुझको महान दुःख है। उसके उद्धार का कोई उपाय बतलाइए। श्रृंगी ऋषि बोले हे गंधर्व कन्या! अब चैत्र शुक्ल एकादशी आने वाली है, जिसका नाम कामदा एकादशी है। इसका व्रत करने से मनुष्य के सब कार्य सिद्ध होते हैं। यदि तू कामदा एकादशी का व्रत कर उसके पुण्य का फल अपने पति को दे तो वह शीघ्र ही राक्षस योनि से मुक्त हो जाएगा और राजा का श्राप भी अवश्यमेव शांत हो जाएगा।
ललिता ने मुनि की आज्ञा का पालन किया और एकादशी का फल देते ही उसका पति राक्षस योनि से मुक्त होकर अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त हुआ। फिर अनेक सुंदर वस्त्राभूषणों से युक्त होकर ललिता के साथ विहार करते हुए वे दोनों विमान में बैठकर स्वर्गलोक को प्राप्त हुए। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को विधिपूर्वक करने से समस्त पाप नाश हो जाते हैं तथा राक्षस आदि की योनि भी छूट जाती है। संसार में इसके बराबर कोई और दूसरा व्रत नहीं है। इसकी कथा पढ़ने या सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
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चैत्र शुक्ल (कामदा) एकादशी व्रत कथा | Kamada Ekadashi Vrat
धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन्! मैं आपको कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ। अब आप कृपा करके चैत्र शुक्ल एकादशी का महात्म्य कहिए। श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे धर्मराज! यही प्रश्न एक समय राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठजी से किया था और जो समाधान उन्होंने किया वो सब मैं तुमसे कहता हूँ।
प्राचीनकाल में भोगीपुर नामक एक नगर था। वहाँ पर अनेक ऐश्वर्यों से युक्त पुण्डरीक नाम का एक राजा राज्य करता था। भोगीपुर नगर में अनेक अप्सरा, किन्नर तथा गन्धर्व वास करते थे। उनमें से एक जगह ललिता और ललित नाम के दो स्त्री-पुरुष अत्यंत वैभवशाली घर में निवास करते थे। उन दोनों में अत्यंत स्नेह था, यहाँ तक कि अलग-अलग हो जाने पर दोनों व्याकुल हो जाते थे।
एक समय पुण्डरीक की सभा में अन्य गंधर्वों सहित ललित भी गान कर रहा था। गाते-गाते उसको अपनी प्रिय ललिता का ध्यान आ गया और उसका स्वर भंग होने के कारण गाने का स्वरूप बिगड़ गया। ललित के मन के भाव जानकर कार्कोट नामक नाग ने पद भंग होने का कारण राजा से कह दिया। तब पुण्डरीक ने क्रोधपूर्वक कहा कि तू मेरे सामने गाता हुआ अपनी स्त्री का स्मरण कर रहा है। अत: तू कच्चा माँस और मनुष्यों को खाने वाला राक्षस बनकर अपने किए कर्म का फल भोग।
पुण्डरीक के श्राप से ललित उसी क्षण महाकाय विशाल राक्षस हो गया। उसका मुख अत्यंत भयंकर, नेत्र सूर्य-चंद्रमा की तरह प्रदीप्त तथा मुख से अग्नि निकलने लगी। उसकी नाक पर्वत की कंदरा के समान विशाल हो गई और गर्दन पर्वत के समान लगने लगी। सिर के बाल पर्वतों पर खड़े वृक्षों के समान लगने लगे तथा भुजाएँ अत्यंत लंबी हो गईं। कुल मिलाकर उसका शरीर आठ योजन के विस्तार में हो गया। इस प्रकार राक्षस होकर वह अनेक प्रकार के दुःख भोगने लगा।
जब उसकी प्रियतमा ललिता को यह वृत्तान्त मालूम हुआ तो उसे अत्यंत खेद हुआ और वह अपने पति के उद्धार का यत्न सोचने लगी। वह राक्षस अनेक प्रकार के घोर दुःख सहता हुआ घने वनों में रहने लगा। उसकी स्त्री उसके पीछे-पीछे जाती और विलाप करती रहती। एक बार ललिता अपने पति के पीछे घूमती-घूमती विन्ध्याचल पर्वत पर पहुँच गई, जहाँ पर श्रृंगी ऋषि का आश्रम था। ललिता शीघ्र ही श्रृंगी ऋषि के आश्रम में गई और वहाँ जाकर विनीत भाव से प्रार्थना करने लगी।
उसे देखकर श्रृंगी ऋषि बोले कि हे सुभगे! तुम कौन हो और यहाँ किस लिए आई हो? ललिता बोली कि हे मुने! मेरा नाम ललिता है। मेरा पति राजा पुण्डरीक के श्राप से विशालकाय राक्षस हो गया है। इसका मुझको महान दुःख है। उसके उद्धार का कोई उपाय बतलाइए। श्रृंगी ऋषि बोले हे गंधर्व कन्या! अब चैत्र शुक्ल एकादशी आने वाली है, जिसका नाम कामदा एकादशी है। इसका व्रत करने से मनुष्य के सब कार्य सिद्ध होते हैं। यदि तू कामदा एकादशी का व्रत कर उसके पुण्य का फल अपने पति को दे तो वह शीघ्र ही राक्षस योनि से मुक्त हो जाएगा और राजा का श्राप भी अवश्यमेव शांत हो जाएगा।
मुनि के ऐसे वचन सुनकर ललिता ने चैत्र शुक्ल एकादशी आने पर उसका व्रत किया और द्वादशी को ब्राह्मणों के सामने अपने व्रत का फल अपने पति को देती हुई भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करने लगी - हे प्रभो! मैंने जो यह व्रत किया है इसका फल मेरे पतिदेव को प्राप्त हो जाए जिससे वह राक्षस योनि से मुक्त हो जाए। एकादशी का फल देते ही उसका पति राक्षस योनि से मुक्त होकर अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त हुआ। फिर अनेक सुंदर वस्त्राभूषणों से युक्त होकर ललिता के साथ विहार करने लगा। उसके पश्चात वे दोनों विमान में बैठकर स्वर्गलोक को चले गए।
वशिष्ठ मुनि कहने लगे कि हे राजन्! इस व्रत को विधिपूर्वक करने से समस्त पाप नाश हो जाते हैं तथा राक्षस आदि की योनि भी छूट जाती है। संसार में इसके बराबर कोई और दूसरा व्रत नहीं है। इसकी कथा पढ़ने या सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
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कामदा एकादशी महात्म्य
कामदा एकादशी व्रत का महत्व: इस एकादशी व्रत को करने से व्यक्ति के समस्त पापों का नाश हो जाता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कामदा एकादशी का व्रत करने वाले को भगवान विष्णु के निवास स्थान बैकुण्ठ धाम जाने का सौभाग्य मिलता है। इस व्रत को करने से प्रेत योनी से भी मुक्ति मिलती है।
कामदा एकादशी जानिए सम्पूर्ण कथा तथा व्रत विधि। | Kamada Ekadashi ki Sampurn Katha
चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को कामदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि इस दिन जो भी साधक व्रत करता है उसे श्री हरि की विशेष कृपा मिलती है। साथ ही उसके समस्त पायों का भी नाश हो जाता है।
आइए जानते हैं क्या है इस व्रत की विधि और कथा? | Vrat ki Vidhi
कामदा एकादशी के दिन सुबह-सवेरे नित्यकर्मों से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्रों को धारण करना चाहिए। इसके बाद पूजा स्थान पर बैठकर श्री हरि की मूर्ति या फोटों के सामने गंगाजल लेकर मन ही मन ब्रत करने का संकल्प करें। इसके बाद उन्हें प्रणाम करके एक-एक करके चंदन, अक्षत, फूल, फल, तिल, पंचामृत अर्पित करें। इन सारी वस्तुओं के साथ ही तुलसी दल जरूर अर्पित करें। कामदा एकादशी की कथा पढ़कर आरती करें। श्री हरि से क्षमा प्रार्थना करके प्रसाद सभी में बांट दें। इसके बाद जो प्रसाद बचा हो उसे ग्रहण कर लें। पूरा दिन व्रत करने के बाद शाम के समय भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करें। संभव हो तो रात्रि जागरण कर लें। इससे श्री हरि की असीम कृपा मिलती है। अगले दिन द्वादशी तिथि पर ब्राह्मण को यथासंभव दक्षिणा देकर पारण करें।
कामदा एकादशी की पौराणिक कथा। | Kamada Ekadashi ki Pauranik Katha
कामदा एकादशी को लेकर पौराणिक कथा मिलती है। इसके मुताबिक प्राचीनकाल में भोगीपुर नामक एक नगर था। वहां पर पुण्डरीक नाम का एक राजा राज्य करता था। भोगीपुर नगर का ऐसा प्रभाव था कि वहां अनेक अप्सरा, किन्नर और गंधर्व वास करते थे वहीं ललिता और ललित नाम के दो स्त्री-पुरुष निवास करते थे। उनके बीच अत्यंत गहरा प्रेम था। वह एक-दूसरे से पल भर भी अलग नहीं रह पाते थे। अगर कभी ऐसी स्थिति आ भी जाए तो दोनों एक-दूसरे की याद में खो जाते थे। एक दिन जब ललित राज दरबार में गान कर रहा था तो उसे अपनी पत्नी की ललिता की याद आ गई।
कथा मिलती है कि जब ललित को अपनी पत्नी ललिता की याद आई तो उसके सुर,लय और ताल बिगड़ने लगे। उसकी यह त्रुटि कर्कट नामक नाग ने पकड़ ली और राजा को पूरी बात बता दी। बह अत्यंत क्रोधित हुए और ललित को राक्षस योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। जैसे ही इसकी सूचना ललिता को मिली वह अत्यंत दुःखी हुई। लेकिन शाप के आगे उसके आंसुओं की भी न चली और ललित वर्षों तक राक्षस योनि में रहा। रोती परेशान ललिता अपनी यह तकलीफ लेकर ऋषि श्रृंगी के पास पहुंची।
ललिता का दुःख सुनकर श्रृंगी ऋषि ने उसे चैत्र शुक्ल एकादशी अर्थात् कामदा एकादशी व्रत करने को कहा। उन्होंने बताया कि इसका व्रत करने से मनुष्य के सब कार्य सिद्ध होते हैं। ऋषि ने कहा कि यदि वह कामदा एकादशी का व्रत कर उसके पुण्य का फल अपने पति को दें तो वह शीघ्र ही राक्षस योनि से मुक्त हो जाएगा और राजा का शाप भी स्वतः ही समाप्त हो जाएगा। ललिता ने ऋषि को प्रणाम किया और उनके बताए अनुसार व्रत का पालन किया।
ललिता ने पूरी श्रद्धा से चैत्र शुक्ल एकादशी का व्रत किया। उसकी निष्ठा और व्रत से भगवान हरि अत्यंत प्रसन्न हुए। उनकी कृपा से ललित राक्षस योनि से मुक्त हुए। व्रत का ऐसा प्रभाव हुआ कि ललिता और ललित दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। मान्यता है कि इस व्रत को करने से साचक कभी भी राक्षस योनि में जन्म नहीं लेता।
धर्म शास्त्रों में कहा जाता है कि संसार में इसके बराबर कोई और दूसरा व्रत नहीं है। इसकी कथा पढ़ने या सुनने मात्र से जीव का कल्याण हो जाता है।
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